सावित्रीबाई फुले
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ज्योति शर्मा/ सावित्रीबाई फुले, भारतीय इतिहास की उन विलक्षण महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने 19वीं सदी में सामाजिक अन्याय, लैंगिक भेदभाव, और जातिगत असमानता के खिलाफ आवाज उठाई। 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में जन्मीं सावित्रीबाई ने न केवल अपने समय के सामाजिक ढांचे को चुनौती दी, बल्कि समाज के वंचित वर्गों के लिए शिक्षा और सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त किया।

सावित्रीबाई फुले ने अपने कार्यों और विचारों से न केवल महिलाओं की स्थिति को सुधारने का प्रयास किया, बल्कि समाज के वंचित वर्गों को शिक्षा और समानता का अधिकार दिलाने में भी अहम भूमिका निभाई।

सावित्रीबाई फुले का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

सावित्रीबाई का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ। 9 साल की उम्र में उनका विवाह 13 वर्षीय ज्योतिराव फुले से हुआ। यह विवाह उनके जीवन की दिशा को बदलने वाला साबित हुआ। ज्योतिराव फुले, जो स्वयं एक समाज सुधारक थे, ने सावित्रीबाई को पढ़ने और लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।

शुरुआती दौर में सावित्रीबाई को शिक्षा प्राप्त करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। परंपरागत और रूढ़िवादी समाज में महिलाओं की शिक्षा को लेकर गहरी असहमति थी। बावजूद इसके, सावित्रीबाई ने पुणे के एक मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की और अपनी मेहनत व लगन से शिक्षिका बनीं।

भारत की पहली महिला शिक्षिका

1848 में सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने पुणे में बालिकाओं के लिए पहला विद्यालय स्थापित किया। उस समय यह कदम क्रांतिकारी था। स्कूल में पढ़ाने के दौरान सावित्रीबाई को लोगों की भारी आलोचना का सामना करना पड़ा। उन्हें पत्थर मारे गए, गालियां दी गईं और समाज ने उन्हें अस्वीकार करने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

सावित्रीबाई ने महसूस किया कि शिक्षा ही वह माध्यम है, जिससे महिलाओं और समाज के पिछड़े वर्गों को सशक्त किया जा सकता है। उन्होंने महिलाओं और दलितों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया।

सामाजिक सुधार और महिला सशक्तिकरण

सावित्रीबाई फुले का योगदान केवल शिक्षा तक सीमित नहीं था। उन्होंने समाज में व्याप्त कई सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए भी काम किया।

  • बाल विवाह और सती प्रथा के खिलाफ लड़ाई:
    उन्होंने बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। उन्होंने महिलाओं को विधवा पुनर्विवाह के लिए प्रेरित किया।
  • विधवाओं और गर्भवती महिलाओं के लिए मदद:
    उस समय विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। सावित्रीबाई ने उनके लिए आश्रय गृह खोले। गर्भवती विधवाओं के लिए उन्होंने ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ की स्थापना की, जहाँ वे अपने बच्चों को सुरक्षित जन्म दे सकें।
  • छुआछूत और जातिगत भेदभाव के खिलाफ कार्य:
    सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने छुआछूत और जातिगत भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने समाज के दलित वर्गों के लिए स्कूल और पानी की टंकी बनवाई, ताकि उन्हें समान अधिकार मिल सकें।

सावित्रीबाई फुले केवल एक शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं थीं, बल्कि एक प्रतिभाशाली कवयित्री भी थीं। उनकी कविताएँ प्रेरणा का स्रोत थीं, जो शिक्षा, समानता, और महिलाओं के अधिकारों पर जोर देती थीं। उनकी कविताओं में उस समय के समाज के दर्द और उनकी भविष्य की आकांक्षाओं की झलक मिलती है।

महामारी के दौरान किए सेवा कार्य

1897 में जब प्लेग की महामारी फैली, तब सावित्रीबाई फुले ने बिना किसी डर के लोगों की मदद की। वह खुद रोगियों की देखभाल करती थीं और उनके लिए भोजन व दवाइयों की व्यवस्था करती थीं। इसी सेवा कार्य के दौरान उन्हें प्लेग हो गया और 10 मार्च 1897 को उन्होंने अपना जीवन देश और समाज के नाम कर दिया।

आज सीखना है जरूरी

सावित्रीबाई फुले का जीवन आज भी प्रेरणा देता है। वह महिलाओं के अधिकार, शिक्षा, और सामाजिक समानता के क्षेत्र में अग्रणी थीं। उनके द्वारा स्थापित स्कूल, उनकी कविताएँ, और उनके विचार आधुनिक भारत में महिलाओं और वंचितों के लिए संघर्ष करने वालों के लिए मार्गदर्शक हैं।

सावित्रीबाई फुले का जीवन यह सिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी यदि व्यक्ति अपने उद्देश्य के प्रति अडिग रहे, तो वह सामाजिक बदलाव ला सकता है। सावित्रीबाई फुले का योगदान केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि समय से परे है। वह शिक्षा, समानता, और मानवता की एक ऐसी मशाल थीं, जो आज भी जल रही है।

उनका जीवन हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है, जो समाज में बदलाव लाने की इच्छा रखता है। आज उनकी जयंती पर हमें उनके आदर्शों को अपनाने और समाज में समानता और शिक्षा के उनके सपने को पूरा करने का संकल्प लेना चाहिए।


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