कहानी: हारुन मियाँ का दर्द
सागर/आर के तिवारी : हारुन मियां को अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था वे सोचने लगे मेरी बहू और मेरा बेटा मेरे बारे में इतना तक सोच सकते हैं! जिसे सुनकर उनकी आखों में आंसू आ गए।
हारुन मियां अपने कमरे में एक पलंग पर लेटे थे जो बहुत दिनों से बीमारी के चलते बाहर कहीं जाते नहीं थे।
बस हमेशा अपने कमरे में ही बने रहते थे। वह तो ख़ुदा की मेहरबानी थी कि कमरे में ही थोड़ा चल फिर लिया करते थे और खुद उठ कर बाथरुम चले जाते थे।
सत्तर की उम्र पार कर चुके थे ।
पर इस उम्र में उन्हें दमे की शिकायत हो गई थी जिसकी वजह से खांसी ने उन्हें अधिक कमजोर कर दिया था कमजोर क्या! तोड़ कर रख दिया था।उन्हें जब दमे का दौरा पड़ता तो जान पर बन आती थी उम्र अधिक होने और रोग पुराना होने से दवा भी काम नहीं करती थी कुल मिला कर जी रहे थे।
पर आज उन्हें इस रोग से अधिक तकलीफ़ उनकी अपनी औलाद ने दी थी जब उन्होंने सुना तो एक बार उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था । उनकी बहू नूरी अपने पति सलीम से बड़े तीखे और रूखे लहजे में बोली सुनो जी अब नहीं चलेगा। मेरा तो जीना ही हराम हो गया है! अब्बू की खांसी के कारण न मैं दिन में सुख से रह पाती हूँ और न रात को सूकून से सो पाती हूँ।
इनका इस तरह रात-दिन का खांसना कहीं मेरी मौत का पैगाम न बन जाये।
इसलिए इन्हें या तो आज ही बाहर वाले कमरे में पहुंचा दो या फिर मैं मायके चली जाती हूँ।
जिस पर सलीम बोला ठीक है थोड़ा सब्र करो मैं अब्बू से बात करता हूँ। जिस पर नूरी तमक कर बोली अब बात नहीं होगी। आज आपको अभी के अभी फैसला करना होगा। आप आज ही अब्बू को बाहर वाले कमरे में भेज दीजिए। तब सलीम बोला भाई उस कमरे में अब्बू को बाथरूम की समस्या हो जायेगी क्योंकि उस कमरे में बाथरूम नहीं है। जिस पर नूरी बोली तो क्या हुआ!कमरे के बाहर तो है। जो उन्हीं ने मेहमानो के हिसाब से बनबाई थी आज उन्हीं के काम आयेगी ।
आज अपने लड़के-बहू की इस तरह की बेरुखी की बातें सुनकर हारुन मियां रंजोगम में डूब गये और पुरानी यादों में खो गये उन्हें याद है जब वे क़रीब सात वर्ष के होंगे और अपने माँ-बाप के साथ गाँव में रहते थे।
उन्हें अपनी अम्मी शकीला का वह चहरा घूम रहा था जो अपने ससुर के लिए जान निछावर करने को आतुर रहतीं थीं और यह मेरी बहू?
उन्हें अपनी माँ पर गुरूर हो गया उन्हें याद है जब एक बार उन्होंने अम्मी से अमरूद के लिए पैसे मांगे थे पर अम्मी ने उन्हें पैसे नहीं दिये थे पर अपने ससुर याने मेरे दादू की बीड़ी के लिए पैसे दे दिये थे।
उन्हें वह घटना एक चल चित्र की तरह आखों के सामने घूम गई।
जब वे एक दिन अपनी अम्मी से रूठ कर घर के बाहर बैठे थे तभी अम्मी आईं और बोलीं अरे, हारुन!ओ हारुन! क्या कर रहा है! हारुन जो अपनी अम्मी से अभी-अभी गुस्से में नाराज़ हो कर मुँह फुलाये घर के बाहर चबूतरे पर बैठा था, शकीला के बुलाने पर भी न अन्दर गया और न कोई जबाब ही दिया। तो शकीला बाहर आ कर बड़े प्यार से बोली अरे! मैं तुझे कब से बुला रहीं हूँ और तूं सुन ही नहीं रहा। तब हारुन रूखे स्वर में बोला क्या है?
शकीला बोली ले, ये आठाना ले और जुम्मन की दुकान से तेरे दादा को चार आने की बीड़ी और चार आने का गुड़ ले आ।
तब हारुन अपनी माँ की ओर आँखे तरेरता हुआ बोला अब तेरे पास ये पैसे कहाँ से आ गये! अभी तो जब मैं मांग रहा था तो कह रही थी!मेरे पास धेला नहीं है और अब ये पैसे दादू की बीड़ी और गुड़ के लिये कहाँ से आ गये?
हारुन, जो एक नादान बच्चा था की बात सुनकर शकीला उससे नाराज़ होने के बजाय मुस्कुराते हुए बोली बेटा, दो पैसे घर में रखना भी जरूरी होते हैं ! ना जाने कब किस काम के लिए ज़रूरत पड़ जायें ।
तब हारुन बोला मैंने तुझसे पैसे अमरूद लेने को मांगे थे जो तुझे जरूरी नहीं लगे और दादू की बीड़ी के लिए तुझे जरूरी लग रहे हैं ?
तब अम्मी बोली बेटा अमरूद तो तूं बाद में खा लेना पर इस उम्र में तेरे दादा का न और कोई शौक है और न खर्चा उन्हें सिर्फ बीड़ी पीने की आदत है जो अब छूटने वाली नहीं और सच पूछो तो मैं मना भी नहीं करती क्योंकि मैं जानती हूँ अब इस उम्र में ये आदतें बड़ी मुश्किल से छूटती हैं।
दूसरी बात उन्हें गुलगुले बहुत अच्छे लगते हैं इसलिए मैं हर दो चार दिन के बीच उन्हें गुलगुले बना कर खिला दिया करतीं हूँ। वैसे भी बेटा अब वे कितने दिन हमारे बीच रहेंगे कुछ ही दिन के मेहमान हैं। एक ना एक दिन तो उन्हें खुदा का बुलावा आयेगा ही तो मैं सोचती हूँ वे जितने दिन भी हमारे साथ रहें खुश रहें। जबकि मैंने देखा था मेरे अब्बू मेरी अम्मी के विपरीत सोचते थे और दादू को बीड़ी पीने से मना करते थे कि इतनी बीड़ी पियोगे तो आपका कलेजा जल जायेगा तब अम्मी उनसे कहती अरे! पहले अपनी तो आदत जो तम्बाकू खाने की है वह तो छोड़ दो फिर अब्बू की बीड़ी छुड़वाने की बात करना तब अब्बू चुपचाप वहाँ से खिसक लिया करते थे।
अम्मी बोली बेटा! तेरे दादा को मेरी शादी की इतनी खुशी थी कि पूछो मत। मुझे गाजे-बाजे के साथ विदा करा कर लाये थे!
पूरे गांव भर ने मेरी मुंह दिखाई की थी उन्होंने भी पूरे गांव को रोटी दी थी बीस-पच्चीस सेर के गुलगुला और न जाने कितने सेर के बताशा बांटे थे। बेटा अब यदि मैं उनके लिए बीड़ी पीने के लिए न दूँ तो मेरे से बड़ा खुदगर्ज़ और मक्कार दूसरा कोई नहीं।
हारुन मियां अपने ही ख्यालों में खोये हुए थे कि तभी सलीम उनके कमरे में आया और इतना ही बोला-अब्बू- वह कुछ बोल भी नहीं पाया और यहाँ हारुन मियां बिना कोई जबाब दिये कमरे से बाहर निकल कर बाहर वाले कमरे की ओर चले गये और मन ही मन सोचते जा रहे थे कि “कल के इन्सानो में और आज के इन्सानो” में जमीन आसमान का फर्क है।
समाप्त