(Story) कहानी गहरा ज़ख्म
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सागर/आर के तिवारीI एक गाँव में एक सेठ जी रहते थे जो बड़े ही धर्मात्मा नियम के पक्के थे सुबह जल्दी उठना स्नान कर पास ही के जैन मंदिर जाना और घर आकर नियम से महावीर स्वामी जी के ग्रन्थों को पढ़ना भूल से भी किसी का दिल न दुखे गाँव के लोग उन्हें अहिंसा का पुजारी कहते थे। सादा जीवन और सादा भोजन करना। उन्हीं की तरह उनकी पत्नी भी थी ईश्वर ने दोनों की अच्छी जोड़ी बनाई थी।
सेठजी महिने में दो दिन पास के गाँव भी बैलगाड़ी से अपनी दूकान ले कर जाया करते थे। वहाँ के किसान भी उन्हें बहुत सम्मान देते थे जिसका कारण उनकी सहजता,दयालुता और ईमानदारी थी किसी भी किसान से अधिक मुनाफा नहीं लेते थे।
देखा जाये तो वे नाम मात्र के ही सेठ थे वह तो गाँव के जो लोग दूकान पर सामान लेने आते जिनमें कोई उनसे उम्र में बड़ा होता तो कुछ छोटे और कुछ बच्चे होते तो कोई दाऊ कहता तो कोई कक्का कहता तो कोई नाम भी लेता था। अब इन ग्राहकों में कोई-कोई उधार भी लेता तो वह कुछ अधिक इज्जत देने के भाव से सेठ जी कह दिया करता था और फिर धीरे-धीरे अधिकांश लोग सेठ जी कहने लगे।
अब गाँव अधिक बड़ा नहीं था तो उसी हिसाब से दुकान में सामान होता था और जैसे ही खत्म होने को आता तो वे शहर जाकर शहर के थोक व्यापारियों के यहाँ से ले आते। हाँ दयालु बहुत थे इस कारण कुछ लोग उनकी दयालुता का नाजायज फायदा भी उठाते थे वे लोग उधार लेते जाते और पिछला देने का वायदा करते पर देते नहीं! इस तरह बेचारे की लागत टूट गई। तब सेठानी ने कहा देखो! आप के सीधे पन का ये लोग ग़लत फायदा उठा रहे हैं आप उन्हें उधार देना बंद कर दें।
इस पर सेठ जी बोले अरे नहीं! अभी उनके पास पैसे नहीं तूं देख नहीं रही दो साल से बेचारों की फसलें चौपट हो गईं। थोड़ा सब्र करो अपने पैसे मिल जायेंगे। अब उनके बच्चे भूखे रहें और मैं दूकान में सामान भरा रखे रहूँ तो मेरे नेमी महराज क्या मुझे माफ़ करेंगे? नहीं भाग्यवान मैं अपने गाँव के बच्चों को भूखा नहीं देख सकता। जिस पर सेठानी बोलीं अब दूकान में सामान कहाँ से लाओगे? जिस पर सेठ निर्मल चन्द बोले हाँ उनका नाम भी उनके स्वभाव के जैसा ही था बोले तूं अपने कान के झुमके देदे मैं उन्हें शहर में बेच कर कुछ सामान नगद और कुछ हमारे व्यापारियों से उधार ले आऊंगा और जब ये लोग हमारी उधारी हमें दे देगें तब मैं बाजार की उधारी चुकता कर दूंगा और तुझे भी नये झुमके बनवा दूंगा।
यहाँ घर के अँदर दोनों पति-पत्नी इस तरह की अपनी सलाह कर रहे थे और घर के बाहर उसी समय गाँव के एक वृद्ध दूकान पर सामान लेने आये थे पर इनकी बातें सुनकर चुपचाप अपने घर वापिस लौट गये और उनकी पूरी बातें अपनी पत्नी से कह सुनाई तब दोनों ने सलाह कर तुरन्त रात में ही गाँव के और चार-दस घरों में चर्चा की और फिर सभी ने विचार विमर्श कर एक निर्णय लिया कि आज अभी के अभी इसी वक्त जिसके पास जितना थोड़ा भी पैसा हो वह सेठ जी को चल कर दे दें जिससे सेठानी जी के कान के झुमके किसी भी कीमत में नहीं बिकने चाहिये वे उनके सुहाग के प्रतीक हैं भला हमारे रहते एक हिन्दु महिला के नाक कान नंगे रहें हमें डूब कर मरने लायक है। आज हमारे परिवारों के चूल्हों को जो साल भर जलाये रखने के लिए रसद देता रहा आज हमारे ही कारण वह मुसीबत में आ गया इससे बड़े शर्म की बात और नहीं हो सकती।
तब आनन-फानन में सभी जितना जिसके पास थोड़ा भी पैसा था उसी समय लेकर सेठ जी के घर पहुँच गए। आधी रात को दरवाजे पर दस्तक सुनकर सेठ-सेठानी ने सोचा कोई सामान लेने आया होगा वे लोग जानते थे कि कोई भी कभी भी सामान लेने आ जाता तो उसे सामान मिल जाता था। दयालु इतने कि जरूरत मंद को अपने खाने की रोटी भी दे दिय़ा करते थे।
आवाज सुनकर उन्होंने दरवाजा खोला तो गाँव वालों की भीड़ देख कर दंग रह गए और मन ही मन सोचने लगे कि दूकान में इतना सामान तो है नहीं जितने लोग आये हैं! तो हाथ जोड़ कर बोले क्या बात है आप इतने सारे लोग ?ख़ैरियत तो है!
तब उन्हीं बुजुर्ग ने सबसे पहले अपने पास के पैसे दिये और माफ़ी मांगते हुए बोले सेठजी हमें क्षमा करें हम सभी बहुत शर्मिन्दा हैं जो आपके सीधे पन का,आपकी दयालुता का नाजायज फायदा उठाते रहे और आप अपना नुकसान उठाते रहे पर न हमें कभी सामान देने को मना किया और न उधारी के लिए तगादा ही किया। सेठजी उन सज्जन की बातें अभी समझ ही नहीं पाये थे कि और लोग भी जो भी अपने-अपने साथ पैसा लाये थे देने लगे देखते ही देखते सेठ जी के पास पैसों का ढेर लग गया जिसे देख उनकी आखों में आंसू आ गए और वे अपनी सेठानी की तरफ देखने लगे सेठानी अपने पति की आखों की भाषा समझ गईं तो उनकी भी आँखे भर आयीं और मन ही मन अपने पति के विश्वास की जीत पर बहुत खुश भी हुईं।
यहाँ सेठानी अपने विचारों में खोई थीं और उधर सेठजी ईश्वर का धन्यवाद कर रहे थे कि आज आपने ही गाँव वालों के हृदय को परिवर्तन कर मेरे व्यापार को बचा लिया तो दूसरी तरफ मेरे गाँव वालों के बीच बने मेरे वर्षो के प्रेम को भी बनाये रखा।
समाप्त


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