मनीऑर्डर
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सागर/आर के तिवारी

पोस्ट मैन •••••••दरवाजे पर पोस्टमैन की आवाज़ सुन कर दादा जी मुझसे बोले बेटा राघव देख! बाहर पोस्टमैन आया है । जा देख किसकी चिट्ठी है?साथ ही बोले पता नहीं किसने भेजी है ।
मैं बाहर आया पोस्टमैन से पूछा किसकी चिट्ठी है?जिस पर वह बोला बेटा चिट्ठी नहीं! आपके दादा जी का मनीआर्डर आया है। जाओ उन्हें बुलाओ! मैं अन्दर आया और दादा जी से बोला( जो बहुत दिनों से बीमारी के चलते पलंग पर पड़े थे) दादा जी चिट्ठी नहीं,आपके नाम से मनीआर्डर आया है। जिस पर वे आश्चर्य करते हुए ऊपर आसमान की ओर देख कर बोले “हे माधव! तेरी लीला तूं ही जाने” आज दो दिन से घर में जैसे-तैसे रूखा-सूखा खाना बन पा रहा था। सोहन न जाने कहाँ से लाकर इन्तज़ाम कर रहा था। ऊपर से राघव की फीस भी भरना थी नहीं तो उसका नाम कट जायेगा ऐसे में मेरे नाम से मनीआर्डर आया है यह सब उस माधव की लीला नहीं तो और क्या है।
फिर बोले पर मुझे मनीआर्डर कौन भेजेगा आज दो साल हो गये किसी की चिट्ठी तक नहीं आई।
दादाजी मनी ऑर्डर की सुनकर सोचते हुए बोले बेटा! मुझे मनीआर्डर भेजने वाला कौन हो सकता है। देख शायद तेरे चाचा को हमारी गरीबी पर तरस आ गया होगा या तेरी बुआ ने सोचा होगा बेटियों का पिता की जायदाद में हक लेने का ही हक नहीं उनकी मुसीबत और गरीबी में भी मदद करने का भी हक होता है। हो सकता है उसकी नाराजगी जाती रही होगी जो जब उसने मुझसे पैसे मांगे थे और मेरे पास न होने पर मैंने पैसे देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी कि बेटा मेरे पास पैसा तो नहीं है। तब उसने इस घर में से अपना हिस्सा मांगा था। जिस पर मैंने उससे कहा था बेटा! इस घर में से मैं तुझे कुछ नहीं दे सकता। यह घर सिर्फ सोहन और मोहन का है हाँं यदि मेरे पास एक और घर होता तो मैं तुझे अवश्य दे देता। वैसे भी बेटा मैंने जीवन भर एक पैसा भी नहीं जोड़ा जो भी अब तक कमाए सब तुम्हीं तीनों पर खर्च कर दिये। जितनी मेरी सामर्थ्य थी मैंने तुम तीनों को पढ़ाया लिखाया। तेरी परवरिश की,तेरा विवाह भी मैंने अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च कर किया जिसके लिए मैंने बाजार से,नाते रिश्तेदारों से कर्ज लिया था और नौकरी पेशा लड़के से तेरी शादी की थी। तेरी और मोहन की पढ़ाई अच्छे से हो सके इसलिए मेरा सोहन दसवीं कक्षा तक ही पढ़ पाया। जब उसने देखा कि परिवार का भार में अकेला उठा रहा हूँ जिस पर भी पूरा नहीं कर पा रहा हूँ। तब उसने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर एक जनरल स्टोर में काम करने का सोचा।
भले ही उसे वहाँ कम पैसे मिलते थे पर उस वक्त वह पैसे बहुत ही माने जाते थे। क्योंकि उस वक्त दो-दो पैसों की जरूरत होती थी और फिर मेरा सोहन आगे नहीं पढ़ सका और आज भी उसी दुकान में दस सालों से काम कर रहा है। जहाँ आज भी इतना पैसा नहीं मिलता जिससे हमारा गुजारा अच्छे से हो सके। अब मैं तो कुछ करता नहीं और फिर तेरी बुआ मुझसे नाराज होकर चली गई। आज दो साल हो गए तब से एक चिट्ठी तक नहीं डाली उसने। तेरा चाचा भी इसलिए नाराज हो गया कि उसने दमोह में एक जगह खरीदी थी और उस पर मकान बनाने मुझ से ही पैसे मांगे थे। मैंने जब उससे कहा कि बेटा! मैं नौकरी तो करता नहीं और न ही कहीं और से आमदनी है तो मैं पैसे कहाँ से दे दूं। तब उसने भी इसी घर में से अपना हिस्सा मांगा था। तब मैंने उससे कहा था बेटा तूं अच्छी नौकरी करता है। तेरा भाई सोहन प्राइवेट नौकरी करता है। जिससे उसे इतना पैसा नहीं मिलता वह तेरी तरह नहीं कमाता और ऊपर से मैं और तेरी माँ भी उसी की कमाई पर निर्भर हैं उसकी आधी कमाई तो मेरी दवा पर खर्च हो जाती है और बाकी की घर खर्च में जिसमें ही दाल रोटी खाते हैं। अब वह भी,कहाँ से पैसों का इंतजाम कर सकता है। अब तूं ही बतला मैं तुझे पैसा देना भी चाहूं तो बोल कहाँ से दे दूं? जिस पर वह बोला इस मकान का आधा हिस्सा बेचकर जो पैसा मिले वह मुझे दे दो। तब मैंने कहा था बेटा सोहन उसके दो बच्चे, उसकी बीवी मैं और तेरी माँ इस घर में बमुश्किल से रहते हैं यदि, आधा घर बेच दूं तो फिर क्या बचेगा। हम सब कैसे रहेंगे? इसलिए बेटा! इस मकान को बेचने का तो सोचो ही मत! हाँ जब तक मैं और तेरी माँ जिंदा हैं तब तक तो यह घर नहीं बिकेगा। हाँ जब हम न रहें तब फिर भले ही तूं! सोहन को सड़क पर करके इसे बेच लेना और फिर जब से वह भी नाराज है हाल-चाल भी नहीं पूछता। इन लोगों को लगता था मेरे पास बहुत पैसा है पर मैं देना नहीं चाहता इन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि हमारी परवरिश पर मेरे पिता ने इतना खर्च किया अब कैसे इनके पास पैसे होंगे। अब शायद हो सकता है अपने बाप पर तरस आ गया होगा।
जा••• अरे! पोस्टमैन को अंदर ही लेआ। तब मैं पोस्टमैन को कमरे में ले आया। दादाजी ने वही प्रश्न पोस्टमैन से किया वे बोले भैया! मनी ऑर्डर किसने भेजा है?कौन है? तब पोस्टमैन ने भेजने वाले का नाम केशव बतलाया जो दमोह में रहते हैं। दादाजी केशव नाम सुनकर कुछ सोचते रहे फिर बोले भैया! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ ये केशव कौन हैं।मैं तो सोच रहा था मेरे छोटे बेटे ने या मेरी गीता बेटी ने भेजा होगा। जिस पर पोस्टमैन दादा जी से बोला आपका नाम किशनलाल है? दादाजी बोले हाँं किशन लाल तो मैं ही हूँ तब पोस्टमैन बोला किशनलाल आप ही हैं, पता भी यहीं का आपका लिखा है तो मनीआर्डर भी आपका ही होगा। आप मनीआर्डर ले लीजिए! फिर सोचते रहना शायद याद आ जाए। दादाजी कुछ और बोलें कि उसके पहले ही दादी बोलीं अरे आप भी कहाँ सोच में पड़ गए! जब ये कह रहे हैं कि आपका पता लिखा है।आपका ही नाम है फिर मनी आर्डर लेने में काहे को आप संकोच कर रहे हो। मैं दादी के कहने का मतलब समझ रहा था। दादी सोच रही थी आज ही पैसों की घर में सख्त जरूरत है और पैसे भी किस्मत से खुद घर पूछते चले आए! फिर भी दादाजी इसी में पड़े हैं कि कौन है? जिसने मनीआर्डर भेजा है। दादी के कहने पर दादाजी पोस्टमैन से बोले ला भैया दे दे कितने का है! पोस्टमैन बोला एक हजार का दादाजी यहाँ भी आश्चर्य करते हुए बोले क्या! एक हजार का! इतनी बड़ी रकम पता नहीं कौन है भेजने वाला और कुछ सोचते हुए उन्होंने पैसे ले लिए। पोस्टमैन ने मनीऑर्डर की पावती ली पैसे और फॉर्म दादा जी को दे दिये। तभी पता नहीं पोस्टमैन को क्या समझ आया तो दादा जी से बोले! दादाजी आपको मनी ऑर्डर भेजने वाले को कुछ संदेश देना है तो इस पर लिख देवें। तब दादाजी मुझसे ही बोले बेटा राघव इस पर लिखो आप कौन हैं, मैं आपको बहुत कोशिश करने के बाद भी पहचान नहीं पा रहा हूँ। आप जो भी हो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूँ परंतु यह बतलाने की कृपा करें कि जो पैसे आपने मुझे मनीऑर्डर से भेजे हैं वह पैसे काहे के हैं।
तब फिर पोस्टमैन पावती लेकर चला गया।
इसी तरह तकरीबन दस-ग्यारह दिन बाद फिर पोस्टमैन दादा जी के नाम की चिट्ठी लेकर आया। संयोग से उस वक्त भी मैं घर पर ही था। मैंने ही चिट्ठी ली और दादाजी को दी तब दादा जी मुझसे ही बोले बेटा पढ़ो तो क्या लिखा है चिट्ठी में! तब मैंने लिफाफा खोलकर चिट्ठी पढ़ी लिखा था! आदरणीय पंडित जी को दमोह से केशव प्रसाद का प्रणाम पहुंचे,मेरे भेजे मनी ऑर्डर को स्वीकार करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूँ।आपने मनीआर्डर की पावती पर लिखा कि आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं इस संदर्भ में,मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा जो धर्मात्मा होते हैं वह परोपकार और निस्वार्थ सहायता कर भूल जाते हैं कि उन्होंने किसी की कभी मदद की हाँं पंडित जी मेरी नजरों में आप वैसे ही धर्मात्मा हैं जिन्होंने मुझ आपरिचित को उस समय पैसों की मदद की थी जब मेरे अपनों ने भी मदद नहीं की थी। उस समय आप यदि मेरी सहायता नहीं करते तो शायद मेरा जीवन जो सुख संपदा और भरे पूरे परिवार के खुशी-खुशी के बीता है न बीता होता या में बेरोजगार रहकर कोई मेहनत मजदूरी कर रहा होता। हाँ पंडित जी मैं आपको करीब पचास वर्ष पहले की याद दिलाता हूँ उस समय मैं मैट्रिक पास कर चुका था। उन्हीं दिनों सागर में एक मंदिर में यज्ञ का आयोजन हुआ था। चूंकि यज्ञ में सागर के आसपास के गांव से भक्तगण आये थे उन्हीं में से मैं भी एक गरीब ब्राह्मण था। यज्ञ में भजन करने वालों को,साधू संतों को भोजन प्रसादी की व्यवस्था थी तो मेरा भी भोजन का प्रबंध होता रहा। उन भजन करने वालों में कुछ स्थानीय लोग भी थे जो भजन के साथ-साथ मंदिर की कुछ व्यवस्थाएं भी देखते थे। उनमें से एक आप भी थे मैं आपसे बहुत प्रभावित हुआ। आपको भले ही याद नहीं पर मुझे याद है मुझे ज्ञात है आपके साथी आपको बहुत इज्जत देते थे। उन्हीं दिनों मलेरिया विभाग में नौकरियां निकली थीं सागर में मेरे गांव के रिश्ते के चाचा भी मलेरिया विभाग में इंस्पेक्टर थे जो वहीं मंदिर के पास ही रहते थे जिनसे मैं मिलता रहता था। उन्होंने ही मुझसे कहा कि मलेरिया विभाग में सर्व लेंस कार्यकर्ता की नौकरी निकलीं हैं तूं भी ग्यारहवीं पास है आवेदन कर दे। पर उस वक्त पोस्टल आर्डर और रजिस्ट्री के खर्चे के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं थे। हाँ पंडित जी उस समय मुझे सत्रह अठारह रुपए की जरूरत थी आप अनुमान लगा सकते हैं उस वक्त बीस रुपये की कितनी कीमत होती थी। हाँं पंडित जी जिस नौकरी के लिए मैं आवेदन कर रहा था उसकी उस वक्त तनख्वाह ही सौ सवासौ रुपए महीने थी। मैंने अपने चाचा से हाँं तो कह दिया पर आवेदन के लिए पैसे नहीं मांग सका। सोचा देंगे या नहीं या सोचने लगें कि एक तो नौकरी की सलाह दी ऊपर से पैसे भी मांग रहा है। तब मेरे एक और गांव से चाचा जो यज्ञ में आए थे मैंने उनसे भी कहा कि मुझे बीस रुपये की जरूरत है वह आपके पास हो तो दे दें या किसी से दिला देवें तब उन्होंने भी यही कहा बेटा मेरे पास भी पैसे नहीं हैं। तब आपके ही साथियों में से एक ने कहा कि आपसे उधार मांग लूं वह होंगे तो दे देंगे और मैंने जब आपसे बीस रुपये उधार मांगे और आपको बतलाया कि किस लिए चाहिए है। तब आपने एक मिनट भी नहीं लगाया और यह कहते हुए कि भाई मैं तुम्हें अधिक नहीं जानता पर यदि मेरे पैसे से तुम्हें नौकरी मिल सकती है तो लो अब तुम्हारी ईमानदारी तुम जानो। जब तुम्हें लौटाना हो लौटा देना।
मैं केशव प्रसाद की चिट्ठी पढ़कर दादा जी को सुना रहा था जिसे सुनते-सुनते वे बीच में खुश होते हुए बोले! हाँं-हाँं याद आया वह लड़का बड़ा गरीब था। पर आज उसने गजब कर दिया इतने बरसों बाद भी मेरे पैसे देने की याद बनी रही। मैंने देखा दादाजी इतने खुश बहुत दिनों में दिखे थे बेखुश होते हुए बोले आगें पढ़ो और बोले! पर यार इतने वर्षों बाद क्यों पैसे भेजे समझ नहीं पा रहा हूँ क्या कारण रहा होगा? अरे जब याद था तो और पहले भेज देता। तब मैंने चिट्ठी आगें पढ़ी उसमें केशव प्रसाद लिखते हैं पंडित जी मेरी नौकरी लग जाने के बाद मुझे पथरिया में पदस्थी दी गई थी मैं तीन महीने के बाद सागर आया।आपका पता किया पर पता चला आप कहीं बाहर गए हैं। तब फिर आज तक जिंदगी की भागम भाग और परिवार की जिम्मेदारियों में उलझा रहा या आप कह सकते हैं भूल गया पर अभी दो साल पहले ही रिटायरमेंट के बाद मैं बच्चों की सुविधा के कारण यहाँ दमोह में शिफ्ट हो गया और ईश्वर की कृपा से एक महीने पहले ही एक दिन एक वैवाहिक कार्यक्रम में आपके बेटे मोहन से मुलाकात हुई। जिनसे बातों बातों में पता चला कि वह सागर के रहने वाले हैं और आपके बेटे हैं ईश्वर ही जानता है मुझे कितनी खुशी हुई थी और फिर आपका वह किया हुआ उपकार फिर से याद आ गया। मैंने मोहन जी से ही आपका पता लिया था और वह छोटी सी रकम मनीआर्डर से आपके चरणों में गुरु दक्षिणा कहो या मेरे जीवन को खुशहाली में भेजने में आपके द्वारा किए गए सहयोग का कर्ज जो मेरे ऊपर था कुछ भी समझ एक दक्षिण के रूप में भेजी थी और उसकी पावती आने पर अपार खुशी महसूस की थी। मैं आपके चरणों में बारंबार प्रणाम करता हूँ। केशव प्रसाद
मैंने देखा चिट्ठी के आखिरी शब्दों को सुनकर दादाजी की आंखों में आंसू आ गए वह बोले देखा बेटा! मैं उस वक्त भी बहुत पैसे वाला नहीं था पर मुझे केशव प्रसाद की जरूरत समझते देर नहीं लगी। देख! वह तो दूसरा है फिर भी मेरी इतनी छोटी सी मदद को मेरा उपकार मान रहा है। हाँ बेटा बीस रुपये केशव को भले ही बहुत थे पर मुझे इतने नहीं कि मैं किसी जरूरतमंद की मदद ना कर सकूं। मैंने वह पैसे वापस मिलने के उद्देश्य से नहीं! उसका काम बन जाए उस उद्देश्य से उसे पैसे दिए थे और कहा था जब तुझे समझ आए दे देना। पर यह नहीं सोचा था कि वह पचास वर्षों बाद तक उसे याद रखेगा और एक मेरी ही औलाद को देख! उन्हें नहीं पता कि मेरे माता-पिता कैसे रह रहे हैं। जैसे हमने उनके साथ कुछ भी न किया हो। मैंने दादाजी को अपने बच्चों के व्यवहार से दुखी देख मैंने उनसे कहा दादा जी आप चिंता न करें!मेरी पढ़ाई हो जाने दो देखना एक दिन मैं नौकरी करूंगा और सब ठीक हो जाएगा। पर मैं भी इतना बमुश्किल से कह पाया और मेरी भी आंखों से आंसू निकल आए तब मेरी दादी ने उठकर मुझे अपने कलेजे से लगा लिया।
समाप्त


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