सागर/ आर के तिवारी
आजकल चर्चा पर्यावरण की ही चल रही है,तो लीजिये मेरी एक व्यंग्य कथा भी पढ़ियेगा
हैलो! अरे कहां हो यार रामलाल जी ? वहां से फोन पर रामलाल जी बोले यार, यहां ससुराल आया हूं। ससुराल का नाम सुनकर मुझे रामलाल जी की ससुराल का पूरा चित्र आंखों के सामने झूल गया। बीस-पच्चीस कच्चे घरों की बस्ती, जिनकी कच्ची गलियां। मैं करीब *पचास* वर्ष पहले उनके विवाह पर उनकी बारात में गया था सो वहां का हाल मुझे पता था। गांव, बस्ती से ही लगा हुआ घनघोर जंगल था। बारात पहुंचते – पहुंचते शाम हो गई थी। वहां उजाले के लिए पेट्रोमेक्स (गैस बत्ती) का सहारा था, उसी की रोशनी में हम लोगों की पंगत (भोजन) हुई। उसके बाद पेट्रोमेक्स की रोशनी में ही एक मरियल से घोड़े पर रामलाल जी को
बैठाकर बारात लगी। हमारा लाल शरबत और पान-बीड़ी से स्वागत सत्कार हुआ और बारात लग जाने के बाद गांव के ही दो – तीन घरों में हम लोगों को ठहरने के लिए डेरा दे दिया गया जहाँ पर उस वक़्त की गुंजाइश के हिसाब से खाटियां और तखत पर गददे बिछा कर आराम करने की व्यवस्था की गई थी। पर जब सुबह हुई तो घोर और सुखद आश्चर्य हुआ, आश्चर्य मुझे ही नहीं हम सभी बारातियों को हुआ क्योंकि बस्ती के घरों से बमुश्किल सौ फुट की ही दूरी से जंगल लगा हुआ था। हमें प्रकृति के सौंदर्य को बहुत नजदीक से देखने का अनुभव और सुख प्राप्त् हुआ। हम बारातियों को उसी जंगल में सुबह अपनी दैनिक क्रियाओं को जाना पड़ा। मैंने देखा उस जंगल में बड़े-बड़े अचार, सागौन, महुआ, तेंदू, आम, जामुन सहित और भी कई फलदार वृक्ष भी लगे हुए थे। बहुत ही सुंदर दृश्य था। सुबह- सुबह पक्षियों की चहचहाहट और गांव की गायों और बछड़ों के रंभाने की आवाजें पूरे वातावरण में आनंद बरसा रहीं थीं। सुबह से ही वहां पनहारियां कुंए से कतार में पानी भरने निकल रहीं थीं। हम लोग उस दिन शाम तक वहाँ रहे । दोपहर का भोजन हुआ, जिसमें आजकल ना मिलने वाला स्वादिष्ट देशी भोजन मिला। भोजन कर हम लोग फिर उस जंगल की ओर निकल गए जहां हमें अचार के फल और तेंदू, महुआ के फल खाने को मिले और आज जैसे ही रामलाल ने फोन पर बताया कि वह ससुराल में है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने उसी खुशी में रामलाल जी से कहा यार, वहां से कुछ अचार और तेंदू बगैरा के फल लेते आना, जंगल तो आपकी ससुराल में समझो आंगन में ही लगा हुआ है। जिस पर रामलाल फोन पर ही बहुत जोर से हंसते हुए बोले अरे यार पंडित जी, किस युग की बात कर रहे हो? आज यहां जंगल का नामोनिशान नहीं बचा। मेरी ससुराल में बमुश्किल एक या दो मकान हैं जो कच्चे हैं। हर किसी की बिल्डिंग खड़ी हो गई हैं। गांव के बीचों-बीच और अगल-बगल से सड़कों का जाल बिछ गया है। जंगलों को काटकर और पहाड़ों को खोदकर सड़कें बनाई गई हैं। हमारी ससुराल से कोसों दूर तक एक भी पेड़ दिखाई नहीं देते हैं, बस एक दो मुंडी (टीले) पहाड़ियों की चोटियां ही बच पाई हैं। जहां अब भी इंसान अपनी पोक मशीनों और जेसीबी मशीनों से घात लगाए इंतजार कर रहा है कि कब मौका मिले और वह उसको भी समतल कर नेस्तनाबूद कर दे। “यार पंडित जी मेरा ससुराल आना भी मजबूरी है” क्योंकि मेरे वृद्ध सास-ससुर अकेले यहां रहते हैं इसलिए पत्नी की खुशी का भी ध्यान रखना पड़ता है। हमारे साले सरकार से सड़क के मुआवजे में मिली रकम से दूसरे शहर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वहीं बस गए हैं। मेरे साले ही क्या? गांव के अधिकांश लड़के बड़े- बड़े नगरों में जाकर वहां बस गए और वहीं अपना जीवन यापन कर रहे हैं। गांव में ना अब वह पहले जैसी खुबसूरती है और ना सुकून “मैं सांस रोके रामलाल की बातें सुन रहा था और सोच रहा था इतने बरसों में कितना कुछ बदल गया जहां इंसान बदला तो वह चमन भी बदल गया” मुझे मेरी आंखों में उस वक्त के हरे-भरे जंगल झूल रहे थे तो वहां बनी आज की सड़कों का आभास भी हो रहा था कि जहां इंसान ठहर नहीं, दौड़ रहा होगा! वे टीले भी रेगिस्तान के टीलों की तरह समझ आ रहे थे। प्रकृति की सुंदरता धूल के गुब्बारों में लिपटी पड़ी होगी! मैं थोड़ी देर तक रामलाल की बातें सुनता रहा फिर हताशा भरे स्वर में बोला रख दे यार फोन, आजा यहां, आजा फिर बात करेंगे। सोचा था तुम वहां से जंगल की मेवा लाएगा। खैर, आजा तू वापस आजा। पर तभी याद आया मैंने पूछा यार, वहां आपके गांव तक जाने के रास्ते में वह बेशरम की झाड़ियां थीं और कच्ची सड़क के किनारे आम- नीम के वृक्ष लगे थे उनका क्या हुआ? तब रामलाल बोले अरे यार पंडित जी अब आप भी कैसी बातें करते हो भाई, मेरे यहां टू लाइन सड़क बन गई है अब गाड़ियां धड़धड़ाते हुए दौड़ती हैं, बेशरम और नीम – आम के वृक्ष की छोड़ो वहां के देवताओं की तक नहीं चली। सड़क के किनारे से दो मढ़ियां- मंदिर थे, एक ठाकुर बाबा का चबूतरा था, तीनों साफ हो गए। उन्हें भी कहीं पास में ही स्थानांतरित कर दिया गया है, बिचारे पेड़ों की क्या दम? तब मैंने कहा तो फिर राहगीरों को विश्राम के लिए भी शेड बने होंगे? रामलाल बोले हां यहां के लोग बतला रहे थे बने तो थे। शहर से गांव तक के बीच दो प्रतीक्षालय (स्टॉपेज) बने थे पर एक के पाये ,(खम्भे)और सीमेंट की सीटें बची हैं और ऊपर की चद्दर कोई धर्मात्मा रात को ही निकाल कर, शायद अपने घर की छाया को ले गया होगा। पर हां, यहां एक शेड जरूर बचा है जिसका कारण यह कि उसके बगल में एक पीपल का बड़ा वृक्ष था, जो सड़क से लगे खेत में था और सड़क बनते-बनते वह सड़क के किनारे आ गया था,उसी से सटाके एक विश्राम शेड ( राहगीरों के लिए प्रतीक्षालय ) बनाया था बस वही बचा है। पर उस पर भी लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है। पीपल के एक ओर वह शेड है तो दूसरी ओर पीपल पर किसी ने लाल सिंदूर लगाकर पत्थर लगा दिया। अब राहगीर रुकते हैं और प्रसाद बगैरा चढ़ाते हैं। प्रसाद बेचने वालों ने उसी शेड में अपनी दुकान लगा रखी है तो आसपास के फुरसतिया लोगों का जमाव भी होने लगा। अब राहगीर कहां विश्राम करें? आप खुद समझदार हैं। मैं भी सोच में पड़ गया, रामलाल के बतलाये अनुसार मेरे मानस पटल पर वहां की पूरी तस्वीर घूम गई कि कल तक जहां चमन था आज वहां सहरा हो गया है, चारों ओर सड़कों का जाल फैला है और बड़ी-बड़ी इमारतें वृक्षों की जगह खड़ी दिखाई दे रहीं हैं कल चमन था अब वहाँ जंगल की मेवा कहाँ।
समाप्त