- पुस्तक- किशनगढ़ की कविता उपन्यास
- लेखक- राजकुमार तिवारी
- लक्ष्मी पांडेय-आदर्श प्रेम कहानी
लक्ष्मी पाण्डेय, अध्यापक हिंदी विभाग डॉक्टर हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर( मध्य प्रदेश)
राजकुमार जी का यह उपन्यास कविता की तरह है रोचक सरल, सहज,सरस और प्रवहमान—– यह सिद्ध करता है कि अभिधात्मक शैली में भी मर्म स्पर्शी और पाठकों को बाँध कर रखने वाली कथा कही जा सकती है। विद्वानों ने उपन्यास और कहानी में अंतर स्पष्ट करने के लिए एक परिभाषा यह भी दी है कि कहानी “उद्यान” की तरह होती है जबकि “उपन्यास’ बीहड़ जंगल की तरह। लेकिन तिवारी जी का यह उपन्यास भी उनकी अन्य रचनाओं की तरह सुंदर उद्यान ही है। इसमें कहीं बीहड़ता नहीं है,भटकाव नहीं है,कहानी सीधे राज मार्ग पर चलती है,रचनाकार श्रेष्ठ कथा वाचक की तरह सामने बैठकर कथा सुनाता प्रतीत होता है कि- फिर ऐसा हुआ, इसके बाद यह हुआ—-। पाठकों को केवल कथा के साथ बहते चले जाना है उन्हें सारे दृश्य एक के बाद एक दिखाई देते चले जाएंगे।
दरअसल हर उपन्यास को दो तरह से पढ़ा जा सकता है एक सिर्फ दिल से और दूसरा जिसमें दिल के साथ दिमाग भी शामिल हो। मैंने ऊपर जिस तरह से सुनने की बात की है वह प्रथम रीति है जिसमें इस उपन्यास को बस पढ़ते चले जाएं,उसमें डूबते चले जाएं। उसके आदर्श पात्र आपको जकड़ लेंगे इसका हर पात्र अपनी भूमिका में आदर्श स्थापित करता है। त्याग,संयम, सेवा, परोपकार, विनम्रता जैसे आदर्श नैतिक मूल्यों की महत्ता और जीवन को सुंदर तथा सार्थक बनाने के लिए इन जीवन मूल्यों की उपयोगिता को रेखांकित करने वाला यह लघु उपन्यास राजकुमार तिवारी की पठनीय एवं सराहनीय कृति है। दूसरी रीति यानी दिल के साथ दिमाग को भी शामिल करके भी इसे पढ़ा जाए तो नई पीढ़ी के संस्कारों की अभिव्यक्ति और प्रस्तुति देखकर उनके प्रति हमारी संकीर्ण सोच चमत्कृत होती है और हृदय एक सुखद आश्वस्ति से भर उठता है।
नई पीढ़ी की युवती कविता ठाकुर साहब की इकलौती बेटी है। वह शहर से डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करके लौटी है। जब ठाकुर साहब और मास्टर जी शहर से उसे लेकर लौटे तो सारा गांव ही हाथ जोड़,फूल- मालाएं लिए उसके स्वागत में खड़ा था। हवेली में नौकर- चाकर मुनीम- कारिंदे सब हैं किंतु एक बार जब मास्टर जी को भोजन का निमंत्रण किया जाता है तो वह पिता के बार-बार मना करने पर रसोई से भोजन बनाना सीखती है और स्वयं भोजन बनाकर अपने पिता और मास्टर जी को परोसती है स्वयं बाद में खाती है। यहाँ उसके संस्कार एक भारतीय स्त्री को अतिथि- सत्कार की भावना से ओत-प्रोत तो दिखाई देते हैं, साथ ही उसका मर्यादित शैली में मास्टर जी के प्रति अपनी आत्मीयता को दर्शाना सराहनीय प्रतीत होता है। मास्टर जी के प्रति उसके लगाव को तब भी देखा जा सकता है जब बुखार में पीड़ित होने पर भी वह स्वयं उनके लिए चाय बनाकर लाती है। कविता में डॉक्टर होने या बड़े घर की बेटी होने का दंभ नहीं है। वह सरल, सहज, दयालु सेवापरायण स्त्री है इसलिए युवावस्था के उत्साह और जोश के साथ किसी गाँव में चिकित्सा सेवाएं देने की बात सोचती है और ऐसा करती भी है।
समृद्ध परिवार की इकलौती बेटी का स्वाभाविक आदर्श सेवा भाव भी यहाँ प्रतीत होता है। उसकी नियुक्ति उदयपुर नाम के जंगली आदिवासी गाँव में होती है। जहाँ उसे अस्पताल में डॉक्टर माथुर,नर्स कमली और प्रेमलाल चपरासी का सुखद साहचर्य प्राप्त होता है। यहीं एक दिन वह दुर्भाग्य वश दुर्घटना का शिकार होती है। भेड़िए के हमले से वह बच तो जाती है किंतु कुरूप हो जाती है। समृद्ध पिता उसे शहर के किसी बड़े अस्पताल में या विदेश में ले जाकर इलाज कराते, सर्जरी करवाते तो पुनः स्वस्थ हो सकती थी किंतु धन और सुविधा होते हुए भी वह एक मूर्खतापूर्ण भावुकता के तहत निर्णय लेती है कि वह गाँव के उसी अस्पताल में रहकर इलाज कराएगी। डॉक्टर माथुर की चिकित्सा और कमली की सेवा को छोड़कर वह कहीं नहीं जाएगी अतः उसके हठ के सामने मास्टर जी और पिता दोनों हथियार डाल देते हैं। अति भावुकता में लिए गए निर्णय के कारण वह कुरूपता से बच नहीं पाती। अंततः आदर्श प्रेम को प्रदर्शित करते हुए वह मास्टर जी से दूर रहने का निर्णय लेती है तथा मास्टर जी के नाम पत्र लिखकर कि- नर्स कमली से विवाह कर लेना मुझे खोजने का प्रयास मत करना। दोनों पिता पुत्री अज्ञातवास में चले जाते हैं ।
मास्टर जी उदयपुर से लौटकर कमली से विवाह करते हैं, कविता की इच्छानुसार ही उनके बच्चों के नाम रखे जाते हैं। अज्ञातवास में जाने से पूर्व ठाकुर साहब अपनी संपत्ति का एक हिस्सा मास्टर जी के नाम कर जाते हैं।
आदर्श को स्थापित करने के लिए विश्वसनीयता आवश्यक है क्योंकि हर नैतिक मूल्य के मूल में विश्वास होता है। साहित्य हित के लिए है- ‘स वै हिताय,’ जो हित करने वाला है उसे विश्वसनीय और प्रेरक तथा जागरूक बनाने वाला होना चाहिए। विश्वसनीयता के बावजूद यह प्रश्न उठता है कि डॉक्टर माथुर यह तत्परता नहीं दिखा सके की कविता को शहर के अस्पताल ले जाएँ। कमली भी यह जागरूकता नहीं दिखा सकी बस यह आदर्श स्थापित करती है की कविता से मैत्री और बहनापा को निबाहने के लिए उसके कथनानुसार मास्टर जी से विवाह कर लेती है।
खैर- प्रश्नों प्रति प्रश्नों से ही रचनात्मकता परिपक्व होती है। आवश्यक नहीं की हर पाठक इन प्रश्नों से जूझे क्योंकि इसमें तो दो राय नहीं की दिल से पढ़ते जाइए तो उपन्यास आपको बांध लेगा।
यह दुखांत उपन्यास है। पंडित रंजन शर्मा यानी मास्टर जी अपनी पोती को यह कथा सुना रहे हैं । कथा की समाप्ति पर कविता की मृत्यु का समाचार मिलता है और कुछ दिन बाद मास्टर जी का भी देहावसान हो जाता है।
कथाकार राजकुमार तिवारी परिपक्व किस्सा गो हैं ।उनकी अनेक विधाओं में रचनाएं प्रकाशित हैं। उपन्यास, कहानियां,कविताएं, व्यंग्य आदि विधाओं पर भी निरंतर सृजनरत हैं। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के पैरोकार होने की नाते उनकी भाषा सधी हुई और मर्यादित होती है। बुंदेली क्षेत्र का प्रभाव होने के कारण वाक्य रचना में कहीं-कहीं व्याकरणिक असंतुलन दिखाई देता है किंतु रचना यानी कथा का प्रवाह उसे दरकिनार करता हुआ पाठक को आगे बहा ले जाता है। यही कारण है की कहानी की रोचकता अंत तक बनी रहती है। उपन्यास में ठाकुर साहब, कविता और मास्टर जी के बीच का रिश्ता, बातचीत, व्यवहार, घटनाएं, प्रभावशाली हैं। राजकुमार जी इस मर्मस्पर्शी उपन्यास के लिए बधाई के पात्र हैं।