सागर/आर के तिवारी
रामलाल किचन में पहुंचे ही थे कि उनकी “श्रीमती जी एकदम से बंम की तरह फटते हुए बोलीं अब आप कुछ न कहना। चुपचाप चले जाइए किचिन से बाहर। हद करदी आपने! “अतिथि देव,अतिथि देव” आज पूरे पांच दिन हो गए आपके “अतिथियों को घर आए हुए” और एक आप हैं कि उनके स्वागत में आपने मेरी “पूरी गृहस्थी की दाल पतली कर दी” मेरे पूरे महीने भर का बजट डगमगा दिया आपने। अब तो हर महीने थोड़ा-थोड़ा जो बचा-बचा कर राशन पानी रखते आए थे उस पर भी “गाज गिरने लगी है” और एक आप हैं कि अतिथि के स्वागत सत्कार में पीछे नहीं है। फिर थोड़ा शांत हो बोलीं कहिए आज क्या खिलाना चाहते हैं आप अपने देवताओं को? अरे! मैं अपने बच्चों को चुप चाप रूखा पोहा बनाकर स्कूल भेज देती हूँ । आपके अतिथियों के सत्कार में जो व्यंजन बनते हैं उसकी तो हमारे बच्चे “खुशबू” तक नहीं ले पाते जब तक वे स्कूल से आते हैं तब तक आपके अतिथि सब कुछ “सफाचट” कर जाते हैं और मैं भी उन बेचारों को पता ना चले उनके आने के पहले ही “सारे बर्तन” साफ कर देती हूँ । हाँ तो कहिए धन्ना सेठ जी आज क्या-क्या बनाना है! पर एक बात कान खोलकर सुन लो! अब मेरी किचन में सिर्फ दाल चावल और आटा ही शेष बचा है। इसलिए इसके अलावा कोई और फ़रमाइश नहीं करना, मैं नहीं बना पाऊंगी। न बेसन बचा है न तेल बचा है न घी बचा है और न मसाले ही बचे हैं। अरे! बच्चों को मैगी,पास्ता कुरकुरे” रखती थी कि बच्चों को जल्द तुरंत बना दिया करूंगी। तो, आपके अतिथि महोदयों को वही अच्छा लगा। बोले भाभी जी आप मैगी और पास्ता बड़ा अच्छा बनाती हैं। दो दिन तो मैं “मेरी तारीफ में फूली ही रही” और उन्हें पास्ता मेगी बना-बना कर खिलाती रही फिर एक दिन उनको हमारे हाथ का पोहा अच्छा लगा मैंने वही खिला दिया। अब सूजी का हलवा, मेथी के पराठे, मूंग की मंगोड़ी, भजिया पकौड़ी की तो कहो ही नहीं मैं रुचरुच कर बनाती रही और आपके अतिथि अपने “हाथ साफ करते रहे” हाँ इसके बावजूद भी आपको और कुछ खिलाने की इच्छा है तो पहले “मेरे किचन में सामान लाकर रख दीजिए” घी, डालडा, तेल तो पहले ही सफाचट हो गया अब बस सूखा ख़ाना ही खिला सकती हूँ । अरे! आपके अतिथि हैं या “भूखे बंगाली” भाई मेरा पांच साल पुराना “आचार और मेरी मम्मी के भेजे पापड़” तक नहीं बचने दिए जिन्हें में “जान से लगा कर रखे थी” बच्चों को तक नहीं दिए। “आचार का तो मुझे इतना दुख है कि पूछो मत, क्योंकि जब-जब उसकी खुशबू आती थी मेरी जीभ में पानी आ जाता था, पर मैं अपने मन को मार कर और “जीभ में चिकोटी मारकर” अपने आप को बहला लेती थी सोचती चलो! अभी नहीं खाती किसी “तीज त्योहार पर पकवान वगैरह के साथ खाऊंगी” पर आपके “अतिथियों की मेहरबानी और आपकी अंधभक्ति” के चलते देवताओं की भेंट चढ़ गई “अब आपसे क्या कहूँ ! आप तो उन्हें हमारे माथे मढ़कर काम पर चले जाते हैं और दिन भर झेलना मुझे ही पढ़ता है। अब भाई झेलना ही कहेंगे, उनके साथ जो उनका बच्चा है उसे “हमारे दरवाजे से निकलने वाले हर फेरीवाले से कुछ ना कुछ चाहिए होता है चाहे वह खिलौने वाला हो,चाहे वह गोलगप्पे वाला हो, चाहे कुल्फी आइसक्रीम वाला हो हर चीज उसे चाहिए होती” और आपके अतिथियों के पास “छुट्टे पैसे” होते नहीं तो “झक मारकर” मेरे सारे पैसे खर्च होते गए और तो और आपके यह देवता दो-तीन बार कहीं से घूम घाम कर आए तो उस ऑटो वाले को भी पैसे मुझे ही देने पड़े क्योंकि उनके पास “छुट्टे पैसे” रहे ही नहीं और सबसे “दुख भरी बात मुझे यह लगी कि आपके देवता बाजार से मेरे बच्चों को एक चॉकलेट तक नहीं लाए” ऐसा भी कभी कोई करता है क्या ?आप ही बतलाइए! “मैं सब कुछ बर्दाश्त कर सकती हूँ पर कोई मेरे बच्चों से छल कपट करे उन्हें स्नेह न करे तो मैं सहन नहीं कर सकती अरे! ऐसा भी कोई करता है क्या ? आपके इन अतिथि देवताओं के कारण मैं अपने इन बच्चों के मित्रों को तक घर नहीं बुला पा रही हूँ । हमारे मिश्रा जी की नातिन जो वास्तव में “बड़ी प्यारी है बिल्कुल जापानी गुड़िया है” और जितनी उसकी उम्र नहीं उतनी तो समझदार है उसे पानीपूरी, गोलगप्पा बहुत पसंद हैं पर मैं उसे वह तक नहीं खिला पाई और एक आप हैं कि अपने देवताओं की अच्छी “अंधी भक्ति” में लगे हैं। जब से आपके देवता यहाँ आये हैं तब से आप बरामदे में सो रहे हैं और मैं अपने बच्चों के साथ यहाँ किचिन में सो रही हूँ अब पता नहीं कब तक सोना होगा । अरे! मुझे तो डर है कहीं “आपके सीधे पन का फायदा यह लोग आपका व्यवहार जो जमाने भर में फैला है उससे ना उठा ले “मेरा मतलब है आप के नाम पर किसी से रकम उधार न उठा ले ” फिर बैठे रहना “राम गुण गाते हुए” तब बीच में रामलाल बोले नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता! वे लोग ऐसे नहीं है जिस पर उनकी श्रीमती जी बीच में ही बोलीं! मैं समझती थी आप इतना नहीं सोच सकते बस मुझमें और आप में इसी सोच की कमी है। आप तो बस बाहर बैठे आर्डर करते हैं और पूर्ति मुझे करना पड़ती है।अब बोलो आज क्या? बनाऊं, दाल चावल रोटी या फिर थोड़ा सा तेल बचा है कहो तो तेल लगा कर दो चार परांठे बना दूं! मैंने देखा “रामलाल धीरे से खुसरफुसर करते हुए बोले” जो हो बना दो, क्योंकि आज वे जाने वाले हैं। “सच पूछो तो मैं भी परेशान हो गया हूं” पर क्या करूं! बहुत दिनों बाद आए हैं। हैं तो दूर के रिश्तेदार पर हैं तो रिश्तेदार ही “मैं तो उन्हें जानता भी नहीं कि कौन हैं! पर जब उन्होंने रिश्ता बतलाया तब याद आया कि “मेरी दादी के मायके के रिश्ते में हैं शायद दादी की मौसी की लड़की की ससुराल वाले हैं”। इसलिए मानदान तो हैं ही। मान तो रखना ही पड़ेगा। तब उनकी “श्रीमती जी थोड़ा खुश होते हुए बोलीं” तो रुको पड़ोस के मिश्रा जी के यहाँ से थोड़ा डालडा मांग लाती हूँ “आज और कड़ाही चढ़ाकर पूडी खिला देती हूँ और मुस्कुराने लगीं । शायद सोच रहीं थीं चलो,आज पिंड छूटने वाला है इन अतिथि देवताओं से।
समाप्त