(Story) कहानी गहरा ज़ख्म
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सागर/आर के तिवारी “यह कहानी कुछ सत्य और कुछ कल्पना पर आधारित एक छोटे से बंदर के बच्चे की है। जिसने मुझे एक नासूर दे दिया, एक गहरा जख्म दे दिया। जो आज भी मेरे दिल में एक दुख का मंजर है एक पुराना ज़ख्म है जो नासूर सा आज भी चुभता रहता है। उस प्यारे से नन्हे से बंदर की तस्वीर,असहाय सी छवि,मौत के भय की छवि आज भी मेरे जेहन में छाप बनाकर विद्यमान है। जो उन दुष्टों से अपनी जान बचाने भागता फिरता रहा”।

यह कहानी है ग्राम हरबंसपुरा की जिस गांव की कुल आबादी दो सौ से ढाई सौ की होगी करीब पच्चीस घरों की बस्ती जिनमें सभी छोटे-बड़े किसान रहकर खेती करते और पशुपालन का भी कार्य करते थे। उन दिनों अधिकांश जानवरों से ही खेती की जाती थी। इसलिए खेत में काम करने के लिए बैल और दूध के लिए गाय-भैंसें पाली जाती थीं। गांव से लगी थोड़ी दूर ही चरोखर,छोटी घास की जमीन थी एवं उसी से लगी जंगल की सीमा थी जहाँ इन जानवरों को चराने ले जाया जाता था। इन घरों में एक घर राजन का भी था वह जब छोटा था। पर वह भी गांव के किसानों के साथ अपने जानवर उस चरोखर एवं उससे लगे जंगल में चराने ले जाया करता था। उस जंगल में एक जगह बड़े-बड़े वृक्ष थे जिनमें कुछ फलदार और कुछ घनी छायादार थे जहाँ गांव वाले रोज उन वृक्षों की छाया में अपनी दोपहर को गुजारा करते थे और अपना-अपना दोपहर का खाना जिसे कलेबा  कहा जाता है को घर से सुबह ले जाया करते थे और वहाँ  बैठकर खाया करते थे। वहाँ  उसी छाया में जानवरों को भी बहुत राहत मिलती थी तो वह भी कुछ देर वहाँ आराम किया करते थे। यह लोग वहाँ करीब एक घंटा विश्राम करते थे। इन सबके खाना खाते वक़्त उन वृक्षों पर रहने वाले पक्षी और गिलहरियां यहाँ-वहाँ से वहाँ भोजन के लालच में आश लगाए आ जाया करते थे। तब वह लोग अपने भोजन में से कुछ टुकड़े उन्हें फेंक कर खिला दिया करते थे। राजन भी अन्य लोगों की तरह कुछ न कुछ खाना उन्हें दे दिया करता था। उन्हीं पेड़ पर कई बंदर भी रहते थे उन बंदरों में उनका एक छोटा सा बच्चा भी रोज उसी वक़्त जब यह लोग खाना खाते पेड़ की डाल से नीचे उतरकर इनसे थोड़ी दूर बैठ जाता और ललचायी नजरों से उन्हें खाना खाते देखा करता था तब राजन उसे भी एक दो रोटी के टुकड़े खाने को दे दिया करता था जिसे वह उठाकर खा लिया करता। यह रोज का काम था बंदर अभी छोटा ही था। पर धीरे-धीरे वह इन गांव वालों से हिलमिल गया था। अब वह इनसे डरता भी नहीं था। कभी-कभी वह राजन के पास आ जाता तो राजन उसे अपनी गोद में बैठा लेता। अभी कुछ ही समय हुआ था पर अब वह इन लोगों का पालतू जैसा हो गया था। राजन और अन्य लोग शाम को जब अपने घरों गांव की ओर जाते तो वह भी इनके पीछे-पीछे आता तब राजन उसे भगा देता बंदर दूर मासूम नजरों से इन्हें देखता रहता राजन जानता था गांव के अन्य लोग तो इसे जानते नहीं और इसके साथ-साथ गांव के पालतू कुत्ते भी बहुत खतरनाक थे जिनका भी डर रहता था । उसे पता था बंदरों और कुत्तों के बीच जन्म-जन्म से बैर है,दुश्मनी है तो उसे डर था कि कुत्ते उस मासूम को हानि न पहुंचा दें। पर होनी को कौन टाल सकता है। पर इस होनी में हमारे मनुष्यों की पशुवृति, हैवानियत देखने को मिली जिसे मैं आज तक नहीं भुला पा रहा हूँ । मैं सोचने पर मजबूर हो गया क्या हमारा समाज इतना क्रूर हो गया? इतना दुष्ट हो गया? क्या वह सोचने समझने की शक्ति खो चुका है। क्या उसके पास हृदय है ही नहीं जो अपनी मानवता भूल चुका है। खो चुका है। तभी तो वह जरा से स्वार्थ के लिए, थोड़े से लालच के लिए एक मूक जानवर की हत्या कर दे जिस जानवर ने यह दुनियाँ अभी पूरी तरह देखी ही नहीं थी। वह घटना मुझे एक "नासूर" बन गई एक "गहरा जख्म" बन गई जब-जब उस घटना की याद आती है मैं तड़प जाता हूँ।
       "हाँ मैं ही राजन हूँ" एक रोज हमेशा की तरह हम सभी गाय चराने वाले वहाँ जंगल में गए और रोज की तरह दोपहर में उसी जगह वृक्षों की छांव में सब अपना-अपना भोजन करने लगे हमेशा की तरह पक्षी और वृक्ष पर रहने वाली गिलहरियां और उस उछल कूद करने वाले बंदर को थोड़ा-थोड़ा खाना हम सभी ने दिया और करीब एक घंटे वहाँ विश्राम करने के बाद शाम तक वहीं आसपास अपने जानवरों को चारा, चरा कर शाम होते ही हम सब लोगों ने अपने गांव की राह पकड़ी हम में से किसी को पता भी नहीं चला कि वह छोटा सा मासूम बंदर छुपते छुपते हम सबके पीछे-पीछे बहुत दूर तक आ गया है। हम सब अभी जंगल से आधा मील चलकर ही आए थे कि हम में से किसी ने उसे देख लिया। तब वह बोला अरे ये बंदर तो आज हमारे साथ-साथ आ गया । यह सुन मैंने एकदम से पीछे मुड़कर देखा और बोला अरे यह क्यों हमारे साथ आ गया! पर तुरंत उसे पुचकारते हुए उठा लिया और अपने कंधे पर बैठा लिया और फिर हम सब लोग अपने गांव की ओर चल दिए। अभी शाम ही हुई थी सो अंधेरा नहीं हुआ था। हम लोग गांव के बाहर बने कुएं के यहाँ  पहुंचे कुएं पर पानी भरने वाली गांव की महिलाएं पानी भर रही थीं वे सब बंदर को मेरे साथ देख कौतूहल से आश्चर्य चकित हो कहने लगीं अरे! यह बंदर! और बंदर भी उन्हें देख मेरे ऊपर बैठा-बैठा चीं-चीं  करने लगा शायद उसे भी वे महिलाएं,उनके पानी भरने का अंदाज,बर्तनों की आवाजें अचंभित कर रही थीं। तभी पास ही से एक कुत्ते की आवाज आई जो मेरे कंधे पर बैठे बंदर को देख भौंकने लगा था। जिसे सुनकर मैं और बंदर दोनों चौंक पड़े मैंने तुरंत उस कुत्ते को चुप करने के उद्देश्य से डांटा पर वह कुत्ता चुप होने की बजाय और अधिक भौंकता जा रहा था तभी उसकी आवाज सुनकर गांव के  अन्य कुत्ते भी आ गए और वे भी भौंकने लगे मैं उन्हें देखकर घबरा गया मैं उन्हें पत्थर मार कर भगाने की कोशिश करने लगा। बंदर भी घबराया हुआ मुझसे चिपक गया। इस बीच  मेरे जानवर घर की ओर जा चुके थे जिनकी मुझे चिंता नहीं थी। मुझे अब उस बंदर को उन कुत्तों से बचने की चिंता हो रही  थी। मैं उसे अपने कंधे पर बैठाले हुए अपने घर की ओर जा रहा था। पर वे कुत्ते मेरे पीछे-पीछे आक्रमक होते हुए बहुत तेज चले आ रहे थे। मैं सोच रहा था कि यह बेचारा इनके पल्ले ना पड़ जाए। मेरा घर थोड़ी दूर ही था पर वहां तक पहुंच पाना मुश्किल लग रहा था, क्योंकि गांव के चार-पांच कुत्ते जो अब घेरा बना कर मेरे आगें पीछे भौंकते चल रहे थे। मैं अपने हाथ में ली हुई लाठी से उन्हें भगा रहा था। परन्तु वे किसी भी तरह मानने वाले नहीं लग रहे थे।
   तभी अचानक बंदर जो शायद बहुत डर गया था या सोचने लगा था कि वह अब मेरे पास सुरक्षित नहीं रह पाएगा। तब वह मेरे कंधे से छलांग लगाकर पास के ही एक नीम के पेड़ पर चढ़ गया। नीम का पेड़ अधिक बड़ा नहीं था। कुत्तों ने जब देखा कि बंदर नीम के पेड़ पर चढ़ गया है तो वे सभी नीम के पेड़ को घेर कर उसे भौंकने लगे। तब तक गांव के अन्य लोग जिनमें चंद बच्चे भी थे आ गए जो उस बन्दर से परिचित भी नहीं थे वे वास्तव में बड़े दुराचारी किस्म के गंवार, दुष्ट लोग थे क्योंकि वे भी गांव के बच्चों के साथ-साथ उस बेचारे को पत्थर मारने लगे । अब बंदर और भी डर गया था मैंने उन लोगों को बहुत समझाया रोका कि वे उसे न सताएं पर वे तो जैसे हैवान से हो गए थे उन्हें वह खेल सा लग रहा था। वे उसे मारने में अपना मनोरंजन समझ रहे थे। पर बेचारे बंदर की तो जान पर बन आई थी! वह घबराकर, डरकर पास ही एक कच्चे बने घर पर चढ़ गया तो वह कुत्ते और कुत्तों के साथ इंसान के भेष में ये कुत्ते भी उनके पीछे पत्थर मारते जा रहे थे। बाकी की कसर उस घर के लोग पूरी कर रहे थे वे भी उसे अपने घर पर से भाग रहे थे। मैं उन्हें रोक रहा था। उनसे विनती कर रहा था। कि उस बेचारे को जाने दो। उसकी मां राह देख रही होगी। उधर बंदर भी अब पूरी तरह से बौखला सा गया था उसे अपनी मौत सामने उन इन्सानो के रूप में दिख रही थी सो वह उस घर से दूसरे घर पर अपनी जान बचाने कूदा  पर वे हैवान,वे शैतान कहां उसका पीछा छोड़ने वाले थे। तभी उन शैतानों में से एक बोला यार इसकी खाल से "ढोलक अच्छी मढी" जाएगी! इसकी "खाल" बहुत अच्छी बोलती है! तब दूसरा राक्षस  बोला तो मार डालो साले को। मैंने उन्हें मना किया गुस्से में भी बोला। खबरदार! यदि किसी ने उसे मारा पर उन धूर्तों पर मेरी धमकी का भी कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की और अब उसे मारने की सोचने लगे। कोई कहीं से लकड़ी,डंडे ले आया तो कोई कहीं से बल्लम ले आया, कोई कुल्हाड़ी ले आया बंदर ने भी अपने प्राण संकट में समझ और शायद सोचा कि मैं भी अब उसकी रक्षा नहीं कर पा रहा हूँ! तो उसने जंगल की ओर,अपने आशियाने की ओर भागना ही उचित समझा और फिर उसने पूरी ताकत से एक लंबी छलांग लगा कर उस घर से कूदकर खेतों के रास्ते जंगल की ओर जान बचाने भागा पर ये दुष्ट आत्माएं,काली खोपड़ी वाले इंसानों के भेष में नरभक्षी कहाँ  मानने वाले थे। सो वे सब अपने-अपने हथियार लिए उसके पीछे उसे मारने दौड़ पड़े और उनके साथ वे गांव के खूंखार कुत्ते भी उसके पीछे-पीछे भागे जिन्हें गांव के लोग उत्साहित करते हुए छु-छु करते जा रहे थे। पर बंदर भी पूरी हिम्मत और पूरी  ताकत से अपनी जान बचाने भागता जा रहा था कि जैसे भी हो आज बच जाये। मैं भी घर जाने की बजाय अब उसे बचाने के उद्देश्य से उसके पीछे भाग रहा था! कि कैसे भी उसे बचा सकूं। जैसे-तैसे वह बंदर उस जंगल की सीमा में प्रवेश कर एक पेड़ पर चढ़ गया। जिस पर बैठ कर उसने राहत की सांस ली कि अब बच गया। पर वे शैतान भी उसका पीछा नहीं छोड़ने वाले थे उन्हें तो अपनी "ढोलकी की मधुर आवाज" सुनना थी चाहे इसके लिए एक निरीह एक मूक प्राणी की जान चली जाए। बंदर जंगल में वृक्ष पर बैठा सोच रहा था अब जान बच गई! पर उसे क्या पता था! उसके साथ क्या होने वाला है। ये दुष्ट तो उसके लिए साक्षात यमराज बन बैठे थे। वे उसे मारने की घात लगाए थे। इधर मैंने भी सोचा चलो बच गया बेचारा और सोचने लगा कि अब यह हम लोगों के पीछे कभी नहीं आया करेगा। मैंने गांव वालों से कहा अब चलो वापस गांव चलते हैं। उसके पीछे क्यों हाथ धोकर पड़े हो। इस पर उनमें से जिसका नाम तुलसीराम था जो हाथ में बल्लम लिए था मुझसे बोला, तुम बड़े धर्मात्मा बनते हो वह क्या तुम्हारा पला हुआ है? इस पर मैं बोला मेरा पला हुआ नहीं है पर है तो बेचारा जानवर उसकी जान लेकर तुम्हें क्या मिलेगा! पाप लगेगा। इस पर तुलसीराम बोला पाप-पुण्य तुम जानो और यदि तुम्हें अधिक दया है तो तुम चले जाओ । मैं फिर भी विनती करता रहा। इतने में एक दूसरा बोला यार रात होने वाली है। और चांदनी रात भी है। चांदनी रात के उजाले में इस बंदर की परछाई नीचे जमीन पर पड़ रही है कहते हैं इसकी परछाई पर डंडे से मारेंगे तो वह समझेगा कि उसे मार पड़ी है। अब क्योंकि वह नीचे ही देख रहा है सो वह जब हम उसकी परछाई पर बार करेंगे वह समझेगा की लकड़ी की मार उस पर ही पड़ी है तो वह घबरा जायेगा और उसके हाथ से डाली छूट जाएगी और वह नीचे आ गिरेगा तब हम उसे मार डालेंगे मैं यह सब सुनकर उनके हाथ जोड़ने लगा। विनती करने लगा। पर वे तो आज उस बंदर के काल बनकर आए थे। तो उन लोगों ने मेरी एक न सुनी और फिर योजनानुसार उस बंदर की परछाई पर दो-तीन डंडे मार दिए मैंने देखा बंदर नीचे आगिरा और उन लोगों के डंडों  की मार से उसकी चीख  निकल गई उसके प्राण पखेरू निकल चुके थे। उसकी आंखें मार के कारण खुली की खुली रह गई थीं मैंने देखा उसके गिरते ही और डंडों की मार पडते ही कुत्ते भी उस पर टूट पड़े एक कुत्ता तो बंदर का गला पकड़ कर शायद उसका खून ही पीने लगा था पर वह तो मांसाहारी जानवर था। उसका तो भोजन ही है पर यह मनुष्य तो उससे भी बड़े जानवर निकले मैं उस वक्त अपनी मजबूरी पर मन ही मन रो रहा था। मैं उस वक़्त उन दरिंदों से उम्र में छोटा और शरीर से भी कमजोर था मैं उस बंदर को बचा ना सका मैं रोने लगा। मेरे द्वारा दिए रोटी के चंद टुकड़े ही उसकी मौत का कारण बने में बतला नहीं सकता उस वक़्त मेरी क्या दशा हो रही थी। वह बेचारा अबोध, मूक बंदर जिसने जीवन के कुछ ही महीने देखे होंगे या शायद एक दो वर्ष वह आसपास के वृक्ष की पूरी डालियां भी नहीं कूद पाया होगा। मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। क्रोध आ रहा था। हम लोगों के रोटी के टुकड़ों के बदले वह हमें इतना प्रेम देता रहा वह जानवर होकर भी उस रोटी का एहसान अपने स्नेह के रूप में हमें देता रहा। पर ये दुष्ट मनुष्य कैसा प्राणी है! जो किसी का एहसान ही नहीं मानता। किसी पर दया ही नहीं करता। उसने अनजाने ही रोटी के टुकड़े के बदले अपने प्राण लुटा दिए। और यह हमारे गांव वाले राक्षसी हंसी हंसते हुए उस बेचारे मरे हुए बंदर के शरीर को लकड़ियों पर टांग कर गांव ।ले आए जहां ये एक "सुरसंगम वाली ढोलकी" को उसकी खाल से मढेगें जिसे वे किसी मंदिर के भगवान के समक्ष बजा-बजा कर हरि कीर्तन करेंगे और स्वर्ग का मार्ग प्राप्त करेंगे ।

पर मुझे एक जख्म जरूर उन्होंने दे दिया जो आज तक मुझे एक नासूर की तरह दर्द देता है वह “गहरा जख्म” है जो हमेशा से आज भी चुभता रहता है।
समाप्त

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